सुखस्य मूलं धर्म:। धर्मस्य मूलं अर्थ:। अर्थस्य मूलं राजस्य। राजस्य मूलं इन्द्रियजय:।।

सुखस्य मूलं धर्म:। धर्मस्य मूलं अर्थ:।
अर्थस्य मूलं राजस्य। राजस्य मूलं इन्द्रियजय:।।


अर्थ — सुख का मूल (जड़) धर्म है। धर्म का मूल (जड़) आर्थिक उपलब्धियों में है। अर्थ का मूल (जड़) राज्य में है। और राज्य का मूल (जड़) इन्द्रियों के वशीभूत होने में है अर्थात इन्द्रियों पर विजय में है।

आलसस्य कुतो विद्या ,अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रम् ,अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥

आलसस्य कुतो विद्या ,अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् ,अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥


अर्थ — जो आलस करते हैं उन्हें विद्या नहीं मिलती, जिनके पास विद्या नहीं होती वो धन नहीं कमा सकता। जो निर्धन हैं उनके मित्र नहीं होते और जिनके मित्र न हों उन्हें सुख की प्राप्ति नहीं होती।

नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते मृगैः। विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता।।

नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते मृगैः।
विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता।।


अर्थ — सिंह को जंगल का राजा घोषित करने के लिए ना कोई अभिषेक किया जाता है और ना कोई संस्कार किया जाता है। वह अपने गुणों एवं पराक्रम से स्वयं ही मृगेन्द्र अर्थात जंगल के राजा का पद प्राप्त करता है।

सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थीः सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थीं वा त्यजेत्सुखम्॥

सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थीः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थीं वा त्यजेत्सुखम्॥


अर्थ — सुख की खोज में जो व्यक्ति है, उसे विद्या कहाँ मिल सकती है? और जो विद्या के लिए प्रयत्नशील है, उसको सुख कहाँ मिल सकता है? सुखार्थी व्यक्ति विद्या को त्याग दे या विद्यार्थी व्यक्ति सुख को त्याग दे।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा – न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा – न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।


अर्थ — जैसे कोई व्यक्ति पुराने और प्रयुक्त वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र पहनता है, उसी प्रकार आत्मा अपने पुराने शरीरों को छोड़कर नए शरीरों को प्राप्त करता है।