अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।


अर्थ — जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा निरंतर वृद्धों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु (उम्र), विद्या (शिक्षा), यश (कीर्ति) और बल (शारीरिक ताकत) इन चारों में वृद्धि होती है।
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करमूले तु गोविन्दं प्रभाते करदर्शनम्।।

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करमूले तु गोविन्दं प्रभाते करदर्शनम्।।

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्दं प्रभाते करदर्शनम्।।


अर्थ — लक्ष्मी माता हमारे हाथ के अंगुलियों के अग्रभाग में वास करती है, सरस्वती माता हमारे हाथों के बीच में वास करती है, भगवान गोविन्द अर्थ विष्णु हमारे हाथों की जड़ में वास करते हैं, सुबह के समय उनका दर्शन करना चाहिए।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।


अर्थ — व्यक्ति के मेहनत करने से ही उसके काम पूरे होते हैं। सिर्फ इच्छा करने से उसके काम पूरे नहीं होते। जैसे सोये हुए शेर के मुंह में हिरण स्वयं नहीं आता, उसके लिए शेर को परिश्रम करना पड़ता है।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः। नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः। नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।


अर्थ — व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य होता है। व्यक्ति का परिश्रम ही उसका सच्चा मित्र होता है। क्योंकि जब भी मनुष्य परिश्रम करता है तो वह दुखी नहीं होता है और हमेशा खुश ही रहता है।

अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम। पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।

अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम। पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।

अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।


अर्थ — अपमान करके देना, मुंह फेर कर देना, देरी से देना, कठोर वचन बोलकर देना और देने के बाद पछ्चाताप होना। ये सभी 5 क्रियाएं दान को दूषित कर देती है।